Rahu ketu astrology
राहू-केतु का फलित पर कोई प्रभाव नहीं
(लेखक - श्री विद्या सागर महथा)
भौतिक विज्ञान किसी पिंड के सापेक्ष या उसके अस्तित्व के कारण गुरुत्वाकषZण , विद्युत-चुम्बकीय-क्षेत्र , या अन्य रुपांतरित शक्ति के स्वरुपों की व्याख्या करता है। जहॉ पिंड नहीं है , किसी प्रकार कीे शक्ति के अस्तित्व में होने की बात कही ही नहीं जा सकती। राहू-केतु आकाश में किसी पिंड के रुप में नहीं हैं। अत: इसमें अंतिर्नहित और उत्सर्जित शक्ति को स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है । फलित ज्योतिष में राहूकेतु को कष्टकारक ग्रह कहा गया है , इससे लोग पीिड़त होते हैं। ज्योतिषियों ने इसके भयावह स्वरुप का वर्णन कर धर्मशास्त्र में उिल्लखित भगवान विष्णु की तरह ही इनके साथ उचित न्याय नहीं किया है।
हमारे धर्मग्रंथों में जैसा उल्लेख है , छल से देवताओं की पंक्ति में बैठकर अमृतपान करते हुए राक्षस का वध श्रीविष्णु ने सुदशZनचक्र से कर दिया राक्षस के गर्दन का उपरी भाग राहू और नीचला भाग केतु कहलाया। भगवान नें ऐसा करके राक्षसी गुणों का प्रकारांतर में वध ही कर दिया था। किन्तु ज्योतिषी आज भी उसे जीवित समझते हैं और उसके भयावह स्वरुप का वर्णन करके यजमानों को भयभीत करते हैं। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के समय ही इनके असाधारण स्वरुप को देखकर लोगों के मस्तिष्क में यह बात कौध गयी हो कि सूर्य और चंद्रमा जैसे प्रभावशाली , प्रकाशोत्पादक , आकाशीय पिंडों के देदीप्यमान स्वरुप को निस्तेज करनेवाले ग्रहों की दुष्टता और विध्वंसात्मक प्रवृत्ति को कैसे अस्वीकार कर लिया जाए , किन्तु मेरा दृिष्टकोण यहॉ बिल्कुल ही भिन्न है।
दो मित्र परस्पर टकराकर लहुलूहान हो जाएं , घायल हो जाएं ,तो इसमें उस जगह का क्या दोष , जहॉ इस प्रकार की घटना घट गयी हो। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण यदि असाधारण घटनाएं हैं , तो इसके समस्त फलाफल की विवृत्ति सूर्य चंद्र तक ही सीमित हो , क्योंकि ये शक्तिपृंज या शक्ति के स्रोत हैं। चंद्रग्रहण के समय पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है और सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा के कारण सूर्य आंिशक तौर पर या पूर्ण रुप से नहीं दिखाई पड़ता है। इस प्रकार के ग्रहण राहू केतु रेखा पर सूर्यचंद्र के पहुंचने के कारण होते हैं। इस प्रकार के ग्रहणों से किसकी शक्ति घटी और किसकी बढ़ी ,उसका मूल्यांकण किया जाना चाहिए। राहू केतु जैसे विन्दुओं को शक्ति का स्रोत समझ लेना , उन परिकल्पित विन्दुओं की शक्ति और विशेषताओं को भचक्र के किसी भाग से जोड़ देना तथ व्यक्तिविशेष के जीवन के किसी भाग से इसके मुख्य प्रतिफलन काल को जोड़ने की परिपाटी वैज्ञानिक दृिष्ट से उचित नहीं लगती।
चंद्रमा का परिभ्रमणपथ पृथ्वी के चतुिर्दक बहुत ही छोटा है। इसकी तुलना में सूर्य के चतुिर्दक पूथ्वी का परिभ्रमणपथ बहुत ही विशाल है। यदि पृथ्वी को स्थिर मान लिया जाता है , तो चंद्रपथ की तुलना में सूर्य का काल्पनिक परिभ्रमण पथ नििश्चत रुप से बड़ा हो जाएगा। परिकल्पना यह है कि चंद्रमा और सूर्य के परिभ्रमण पथ एक दूसरे को काटते हैं , उसमें से एक विन्दु उत्तर की ओर तथा दूसरा दक्षिण की ओर झुका होता है। दोनों के परिभ्रमणपथ परिधि की दृिष्ट से एक दूसरे से काफी छोटे-बड़े हैं ,अत: इनके परस्पर कटने का कोई प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता है , किन्तु दोनो के परिभ्रमण पथ को बढ़ाते हुए नक्षत्रों की ओर ले जाया जाए तो दोनो का परिभ्रमणपथ आकाश में दो विन्दुओं पर अवश्य कटता है। इस तरह चंद्रसूर्यपथ के कटनेवाले दोनो विन्दुओं उत्तरावनत् और दक्षिणावनत् का नाम क्रमश: राहू और केतु है।
इस तरह येे काल्पनिक विन्दु आकाश में कितनी दूरी पर है , इसका भी सही बोध नहीं हो पाता। पुन: अस्तित्व की दृिष्ट से विन्दु विन्दु ही है , इसकी न तो लंबाई है , न चौड़ाई और न ही मोटाई , इसलिए पिंड के नकारात्मक अस्तित्व तथा दूरी की अनििश्चतता के कारण फलित में राहू केतु का महत्व समीचीन नहीं लगता। किन्तु ये सूर्य और चंद्रग्रहण काल को समझने में सहायक हुए , इसलिए इन्हें ग्रह का दर्जा दे दिया गया। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को सूर्य चंद्रमा की युति और वियुति से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। यह युति वियुति खास इसलिए मानी जा सकती है या तीव्रता में वृिद्ध की संभावना रहती है , क्योंकि यह राहूकेतु रेखा पर होती है , जो पृथ्वी के केन्द्र से होकर गुजरती है , किन्तु इस प्रकार की आकाशीय घटनाएं बहुत बार घटती हैं। सूर्य बुध और सूर्य शुक्र के ग्रहणों को भी देख चुका हूं , किन्तु इसके विशेष फलित की चर्चा युति से अधिक कहीं भी नहीं हुई है। यदि इन विशेष युतियों पर भी बात हो , इनके फलित को उजागर करने की बात हो तो आकाश में राहू केतुओ की संख्या ग्रहों से भी अधिक हो जाएगी। आकाशीय पिंडों से संबंधित भौतिक विज्ञान जिन शक्तिसिद्धांतों पर काम करता है , उन्हीं का उपयोग करके सही फल प्राप्त किया जा सकता है। राहू केतु परिकल्पित आकाशीय विन्दु हैं , अत: आकाशीय िंपड की तरह इसके फल को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
राहू केतु को ग्रह न मानकर फलित ज्योतिष से इनकी छुट्टी कर दी जाए तो विंशोत्तरी पद्धति में वणिZत राहू केतु के महादशा और अंतर्दशा का क्या होगा ? ठंडे दिमाग से काम लें तो जो राहू केतु सूर्य और चंद्र का भक्षण कर रहा था , एस्ट्रोफिजिक्स के सिद्धांत आज उसी का भक्षण कर रहें हैं। जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा के परिभ्रमणपथों के दो विन्दुओं पर कटने से उन परिकल्पित विन्दुओं के नाम राहू केतु पड़े , इस तरह सूर्य बुध , सूर्य शुक्र , सूर्य मंगल , सूर्य बृहस्पति , सूर्य शनि , पुन: चंद्र बुध , चंद्र मंगल , चंद्र शुक्र ,चंद्र बृहस्पति , चंद्र शनि , के परिभ्रमण पथ भी दो विन्दुओं पर कट सकते हैं , इन परिस्थितियों में इन परिकल्पित विन्दुओं के नाम राहू1 , राहू2 ,राहू3 ,,,,,,,,,,,,,,तथा केतु1 , केतु2 , केतु3 ,,,,,,,,,,,,,पड़ते चले जाएंगे। सूर्यपथ के साथ सभी ग्रहों के परिभ्रमण पथ के कटने से 9 राहू केतुओं का , चंद्रपथ के साथ अन्य ग्रहों के कटने से 8 राहू केतुओं का , इस तरह बुध के परिभ्रमण पथ पर 7 , मंगल के परिभ्रमण पथ पर 6,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
इस तरह यह सिद्ध हेा जाता है कि सूर्य चंद्रमा के एक ही तल में युति-वियुति ,जो पृथ्वी तल के समकक्ष होती है , की ही तरह शेष ग्रहों की युति-वियुति की संभावनाएं 44 बार बनती है। इस तरह अनेकानेक यानि 45 राहू केतुओं का आविभाZव हो जाएगा। यहॉ ध्यान देने योग्य बात ये है कि इन विशेष परिस्थितियों में युति या वियुति बनानेवाले ग्रह तत्काल या कालान्तर में अपने दशाकाल में सचमुच असाधारण परिणाम प्रस्तुत करते हैं। इन विशेष विन्दुओं के ठीक 90 डिग्री की दूरी पर दोनो तरफ दोनो के परिभ्रमणपथ सर्वाधिक दूरी पर होंगे। उस समय संबंधित दोनो ग्रहों की युति या वियुति का अर्थ ग्रहण काल की युति-वियुति के विपरीत किस प्रकार का फल प्रदान करेंगे , यह परीक्षण का विषय होना चाहिए। हर दो ग्रहों के विभिन्न परिभ्रमणपथ परस्र एक दूसरे कों काटे तो उन विन्दुओं पर उनकी युति-वियुति के फलित से 90 डिग्री की दूरी पर युति-वियुति के फलित की विभिन्नता को समझने और परीक्षण करने का दायित्व ज्योतिषियों के समक्ष उपस्थित होता है। तब ही राहू केतु विन्दुओं पर ग्रहों की युति-वियुति की विशेषताओं की पकड़ की जा सकती है।
पृथ्वी सूर्य के चतुिर्दक परिक्रमा करती है , किन्तु जब पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य की परिक्रमा को गौर से देखा जाए तो इसका कभी उत्तरायण और कभी दक्षिणायण होना बिल्कुल ही नििश्चत है। इसी तरह सभी ग्रहों के परिभ्रमणपथ की नियमावलि प्राय: सुनििश्चत है। ये सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं , अपने पथ पर थिरकते हुए भले ही ये उत्तर-दक्षिण आवर्ती हो जाएं , क्योंकि पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य स्वयं उत्तरायन-दक्षिणायन होता प्रतीत होता है । सभी ग्रहों की गति भिन्न-भिन्न होती है अत: विभिन्न ग्रहों के पथ मेंं विचलन परिभाषित होता रहता है। इस प्रकार किसी भी दो ग्रहों की युति-वियुति पृथ्वी तल समानांतर एक तल में एक विंदु पर या 180 डिग्री पर होती रहती है।
सूर्य और चंद्रमा कब राहू केतु विंदु पर युति या वियुति करेंगे , इसकी नियमितता की जानकारी प्राप्त हे चुकी है , किन्तु शेष ग्रहों से संबंधित राहू केतु विंदुओं की गति की नियमितता की जानकारी गणित ज्योतिष के मर्मज्ञ ही दे सकते हैं । जनसामान्य तक इसकी जानकारी की आवश्यकता इसलिए महसूस नहीं की गयी क्योंकि शेष ग्रहों के ग्रहण न तो आकषZक होते हैं और न ही दृिष्टपटल में आ ही पाते हैं। फलित ज्योतिष में भी इसकी चर्चा युति के रुप में ही होती है , ग्रहण के रुप में नही। पृथ्वी के बहिर्कक्षीय ग्रह मंगल , बृहस्पति , शनि , यूरेनस , नेपच्यून और प्लूटो सूर्य से ग्रहण के बावजूद सूर्य के पृष्ठतल में ही रहेंगे , अत: ये पृथ्वी से दृष्ट नहीं हो सकते। अनेक राहू केतुओं की चर्चा करके मैं यही सिद्ध करना चाह रहा हूं कि फलित ज्योतिष में वणिZत इसके भयानक स्वरुप को लोग भूल जाएं।
किसी भी दो ग्रहों के लिए ये ऐसे परिकल्पित विन्दु हैं , जहॉ पहुंचने पर इन दोनों आकाशीय पिंडों के साथ ही साथ पृथ्वी एक सीधी रेखा में होता है। इन विन्दुओं पर संबंधित ग्रहों के एक बार पहुंच जाने पर उन ग्रहों की शक्ति में भले ही कमी या वृिद्ध देखी जाए , किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में राहू केतु के प्रभाव को अलग से दर्ज करना कदापि उचित नहीं लगता। पहले एक राहू और एक केतु से ही लोग इतने भयभीत होते थे , अब 45 राहू और केतु की चर्चा कर मैं लोगों को डराने की चेष्टा नहीं कर रह हूं , वरन् इसके माध्यम से असलियत को समझाने की चेष्टा कर रहा हूं , इस विश्वास के साथ कि इसकी जानकारी के बाद इसके जानकार इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। अब वे दिन लद गए , जब राहू केतु के गुणों के आधार पर भचक्र के रािशयों या नक्षत्रों पर इसके स्वामित्व की चर्चा होती थी। इनके उच्च या नीच रािश की चर्चा की जाती थी। इनके नाम पर महादशा और अंतर्दशा की चर्चा होती थी।
सभी प्रकार की दशापद्धतियों में इनके प्रभाव की हिस्सेदारी सुनििश्चत की जाती थी। राहू केतु के सही स्वरुप कों समझ लेने के बाद यह दायित्व हम ज्योतिषियों के समक्ष उपस्थित होता है कि विभिन्न दशापद्धतियों , चाहे वह विंशोत्तरी हो या अष्टोत्तरी या परंपरागत , राहू केतु के महादशा के काल भिन्नता 18 वषZ और 7 वषZ के साथ ही साथ महादशा और अंतर्दशा आदि से संबंधित त्रुटियों को कैसें समाप्त किया जा सकेगा ? पंचांग निर्माणकत्र्ताओं को यह स्मरण होगा कि श्री संवत् 2050 शक 1915 कार्तिक कृष्ण सप्तमी शनिवार 6 नवंबर 1993 को सूर्य-बुध की भेद-युति हुई थी। इसे सूर्य बुध का ग्रहण कहा जा सकता है। भला राहू केतु के अभाव में कोई ग्रहण संभव है ?