विकसित विज्ञान नहीं , विकासशील विद्या या शास्त्र है

Siddhant Jyotish

विकसित विज्ञान नहीं , विकासशील विद्या या शास्त्र है

(लेखक - विद्या सागर महथा )

फलित ज्योतिष अभी विकसित विज्ञान नहीं , विकासशील विद्या या शास्त्र है , किन्तु इसके विकास की पर्याप्त संभावनाएं विद्यमान हैं । इसे अनिश्चत से निश्चत की ओर आसानी से ले जाया जा सकता है। इस शास्त्र को विज्ञान में रुपांतरित किया जा सकता है। गणित ज्योतिष विज्ञान है , क्योंकि आकाश में ग्रहों की स्थिति , गति आदि से संबंधित नििश्चत सूचना प्रदान करता है। सैकड़ो वर्षों बाद लगनेवाले सूर्यग्रहण , चंद्रग्रहण की अवधि की सूचना घंटा , मिनट और सेकण्ड तक शुद्ध रुप से प्रदान करता है। यह भी सूचित करता है कि पृथ्वी के किस भाग में यह दिखाई पड़ेगा। किन्तु हम फलित ज्योतिष को विज्ञान नहीं कह पाते ,क्योंकि ग्रहों के फलाफल का स्पष्ट उल्लेख हम नहीं कर पाते। धनेश धन स्थान में स्वगृही हो तो व्यक्ति को धनवान होना चाहिए परंतु इस योग से कोई करोड़पति , कोई लखपति और कोई सहस्रपति है तो कोई केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति ही जोड़-तोड़ से कर पा रहा है। लग्नेश , लाभेश और नवमेश धन स्थान में हो तो जातक को इस योग से बहुत ही समृद्ध और धनवान होना चाहिए परंतु इस योग में उत्पन्न हुए व्यक्ति को भी दरिद्रता के दौर से गुजरते हुए देखा जाता है। मेरे पास ऐसे कई उदाहरण हैंं - कम्प्यूटर जिस कुंडली में अधिक से अधिक धन योग की चर्चा करता है , वह व्यक्ति धनी नहीं है तथा जिस कुंडली में कुछ दरिद्र योगों की चर्चा है , वह सर्वाधिक संपन्न देश का राष्टपति है। ऐसी परिस्थिति में ग्रहों की स्थिति के अनुसार उससे उत्पन्न प्रभाव या फलाफल की समरुपता का क्या सही पता चल पाता है ? ग्रहों की शक्ति , उसकी तीव्रता या उत्पन्न प्रभाव के मूल स्रोत या असली कारणों तक क्या हम पहुंच चुके हैं ? क्या ग्रह की शक्ति , तीव्रता या कार्यक्षमता को मापने का सही उपाय हमारे पास है। ग्रहो की गति और शक्ति से पहले हमने योगकारक ग्रहों का विज्ञान और इसके फलाफल के नियम ढूंढे। 


ज्‍योतिष में ग्रहों की शक्तिमापक फार्मूला आवश्‍यक है

भौतिक विज्ञान में विभिन्न प्रकार की शक्तियों का उल्लेख है। प्रत्येक शक्ति की माप के लिए वैज्ञानिक सूत्र हैं , शक्तिमापक इकाई है। शक्ति की माप के लिए शक्तिमापक संयंत्र या उपकरण है , ताकि उसकी तीव्रता का आकलण स्पष्ट रुप से किया जा सके। स्पीडोमीटर से बस , रेल और यान की गति का स्पष्ट बोध हो जाता है। थर्मामीटर से तापमान का स्पष्ट बोध होता है। बैरोमीटर से हवा के दबाब की जानकारी होती है । अल्टीमीटर से उड़ान के समय वायूयान की ऊंचाई का पता चलता है। ऑडियोमीटर से ध्वनि की तीव्रता का पता चलता है। विद्युत की मात्रा को मापने के लिए इलेक्टोमीटर का व्यवहार होता है। गैल्वेनोमीटर से कम मात्रा की विद्युतधारा कों मापा जाता है। लैक्टोमीटर दूध की शुद्धता को मापता है। रेनगेज किसी विशेष स्थान पर हुई वषाZ की मात्रा को मापता है। सेक्सटेंट से आकाशीय पिंडों की कोणिक ऊंचाई की माप की जाती है। स्टॉप वाच से सूक्ष्म अवधि को रिकार्ड किया जाता है। उपरोक्त सभी प्रकार के यंत्र वैज्ञानिक सूत्रों पर आधारित नििश्चत सूचना देने का काम करते हैं , अत: ये सभी जानकारियॉ वैज्ञानिक और विश्वसनीय हैं। यदि हम ज्योतिषियों से पूछा जाए कि ग्रह-शक्ति की तीव्रता को मापने के लिए हमारे पास कौन सा वैज्ञानिक सूत्र या उपकरण है तो मै समझता हूं कि इस प्रश्न का उत्तर देना काफी कठिन होगा ,लेकिन जबतक इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिलेगा , फलित ज्योतिष अनुमान का विषय बना रहेगा। अब ग्रहों के बलाबल को निर्धारित करने से संबंधित कुछ सूत्रों की खोज कर ली गयी है। इसकी चर्चा थोड़ी देर बाद होगी , सबसे पहले हम एक बार उन सभी परंपरागत ज्योतिषीय नियमों पर दृिष्टपात करें , जो ग्रह बलाबल निर्धारण के सूत्र के रुप में विद्यमान हैं -

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1 स्थान-बल- स्वगृही , उच्च , मूल ति्रकोण , मित्र रािश में स्थित या उिल्लखित द्रेष्काण ,नवमांश ,सप्तमांश , आदि ‘ाडवर्ग में अधिक वर्ग प्राप्त होने पर या अन्य ग्रहों के सापेक्ष अष्टक वर्ग नियम से चार रेखाओं से ऊपर होने पर ग्रह बलवान होता है । 


2 दिक्बल- बुध , बृहस्पति लग्न में , शुक्र , चंद्र चतुर्थ भाव में , शनि सप्तम भाव में तथा सूर्य , मंगल दशम भाव में दिक्बली होते हैं। 


3 कालबल- कालबल के अंतर्गत चंद्र , शनि , मंगल राति्र में , सूर्य , गुरु , शुक्र दिन में तथा बुध सदैव बलि होता है। 


4 नैसगिZकबल- शनि , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , चंद्र और सूर्य उत्तरोत्तर आरोही क्रम में बलवान होते हैं। शायद इस प्रकार के ग्रह बल की परिकल्पना इनके प्रकाश की तीव्रता को ध्यान में रखकर की गयी थी। 


5 चेष्टाबल- मकर से मिथुनपर्यन्त किसी भी रािश में सूर्य , चंद्र की स्थिति हो तो उनमें चेष्टाबल होगा तथा अन्य सभी ग्रह चंद्रमा के साथ होने से चेष्टाबल प्राप्त कर सकेंगे। 


6 दृिष्टबल- किसी ग्रह को शुभग्रह देख रहा हो तो शुभदृिष्टप्राप्त ग्रह बलवान हो जाता है। 


7 आत्मकारक ग्रहबल - आत्मकारक ग्रहबल की स्थिति के सापेक्ष ग्रहबल या जैमिनी सूत्र से ग्रहबल आत्मकारक ग्रह के साथ या उससे केन्द्रगत रहनेवाले ग्रह पूर्णबली , दूसरे , पॉचवे आठवें और एकादश में रहनेवाले अर्द्धबली तथा तीसरे , छठे , नवें और द्वादश भाव में रहनेवाले निर्बल होते हैं। 


8 अंशबल- किसी रािश के प्रारंभिक अंशो में स्थित रहनेवाला ग्रह बाल्यावस्था में होता है तथा रािश के अंतिम भाग में रहनेवाला ग्रह वृद्धावस्था में होता है। रािश के मध्य में रहनेवाले ग्रहों को बलवान कहा जाता है। 


9 योगकारक-अयोगकारक बल - संहिताओं में ग्रह फलाफल की विवृत्ति जिस ढंग से मिलती है , उसके अनुसार योगकारक ग्रहों को शुभफलदायक ,बलवान तथा अयोगकारक ग्रहों को अशुभफलदायक और निर्बल समझा जाता है। 


10 पक्षबल- कृष्णपक्ष में पापग्रह एवं शुक्लपक्ष में शुभग्रह बलवान होते हैं। 


11 अयण बल- उत्तरायण में शुभग्रह और दक्षिणायण में पापग्रह बलवान होते हैं। 

इस प्रकार ग्रह के बलाबल निर्धारण के लिए परंपरा से ग्यारह नियमों की खोज हो चुकी है। स्थान बल के अंतर्गत आनेवाले दो नियमों ‘ाडवर्ग बल और अष्टकवर्गबल को अलग-अलग कर दिया जाए तो ग्रह शक्ति की जानकारी के लिए कुल तेरह प्रकार के नियम परंपरा में प्रचलित हैं। हो सकता है कि ज्योतिष के अन्य ग्रंथों में कुछ और नियमों का भी उल्लेख हो। इन परिस्थितियों में ग्रह बलाबल से संबंधित कई गंभीर प्रश्न एक साथ उपस्थित होते हैं - 
1 ग्रह बल निर्धरित करने का एक भी नियम सही होता तो दूसरे , तीसरे , ```````````````````````` बारहवें , तेरहवें नियम की बात क्यों आती ? 


2 सभी नियम ऋषि-मुनियों की ही देन हैं। यदि कोई एक नियम सही है तो शेष की उपयोगिता क्या है ? 


3 यदि ग्रह बलाबल निर्धारण में सभी नियमों का उपयोग करें तो क्या ग्रहबल की वास्तविक जानकारी हो पाएगी या ग्रहबल नियमों के बीच ज्योतिषी उलझकर ही रह जाएंगे ? 


4 कम्प्यूटर में ग्रह बलाबल से संबंधित सभी नियमों को डालकर बारी बारी से या एक साथ इनकी सत्यता की जॉच की जाए तो क्या सफलता मिलने की संभावना हैं ? 


5 क्या ग्रह बलाबल से संबंधित सभी नियम एक दूसरे के पूरक हैं ? 

आप कुछ उत्तर देंगे , इसे पहले मैं ही उत्तर देता हूं कि उपरोक्त नियमों में एक भी नियम ग्रहबल निर्धारण के लिए आंिशक रुप से भी सही नहीं हैं। शायद इसीलिए फलित ज्योतिष अनुमान का विषय बना हुआ है। यदि कोई एक नियम काम करता तो दूसरे नियम की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती। एक नियम के पूरक नियमों के रुप में शेष नियमों को मान भी लिया जाए तो व्यावहारिक तौर पर इसकी पुिष्ट नहीं हो पा रही है। ऐसे कई उदाहरण मेरे पास हैं , ग्रह बलाबल से संबंधित अधिकांश नियमों के अनुसार ग्रह बलवान होने के बावजूद ग्रह का फल कमजोर है। निष्कषZत: इन परंपरागत सभी नियमों के संदर्भ में यही कहना चाहूंगा कि इन सभी नियमों को कम्प्यूटर में डालकर विभिन्न महत्वपूर्ण कुंडलियों में इसकी सत्यता की जॉच की जाए तो परिणाम कुछ भी नहीं निकलेगा । यह फलित ज्योतिष की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक है।

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फलित ज्योतिष के प्रणेता हमारे पूज्य ऋषि-मुनियों , पूर्वजों और फलित ज्योतिष के विद्वानों के समक्ष ग्रहशक्ति के रहस्यों को समझने की गंभीर चुनौती, हर युग में उपस्थित रही है । इसलिए उन्होनें विभिन्न दृिष्टकोणों से ग्रह शक्ति के रहस्य को उद्घाटित करने का भरपूर प्रयास किया। संभवत: इसलिए ग्रह-शक्ति को समझने से संबंधित इतने सूत्रों का उल्लेख विभिन्न पुस्तकों में दर्ज है। 

आज भौतिक विज्ञान पिंड की शक्ति को उसकी गति , ताप , प्रकाश , चुम्बक , विद्युत और ध्वनि के सापेक्ष उसके अस्तित्व को स्वीकार करता है। विज्ञान यह भी कहता है कि किसी भी शक्ति को उसके दूसरे स्वरुप में परिवर्तित किया जा सकता है। ग्रह में गति और प्रकाश है , परस्पर गुरुत्वाकषZण के कारण प्रत्येक ग्रह का अपना एक विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र होता है। सभी आकाशीय पिंड परस्पर गुरुत्वाकषZण बल और गति से इतने सशक्त बंधे हुए हैं कि करोड़़ों वषZ व्यतीत हो जाने के बाद भी अपने नियमों का पालन यथावत कर रहें हैं। सूर्य से पृथ्वी 15 करोड़ किलोमीटर दूर रहकर सूर्य के चारो ओर 365 दिन , 5 घ्ंाटे , 48 मिनट और कुछ सेकण्ड में एक परिक्रमा कर लेती है। करोडों वषोZं के बाद भी एक परिक्रमा की अवधि में मिनट भर का अंतर नहीं पड़ा। स्मरण रहे , पृथ्वी अपने परिभ्रमण पथ में एक मिनट में लगभग हजार मील की गति से सूर्य के चारो ओर परिक्रमा करते हुए अग्रसर है। बृहस्पति जैसा भीमकाय ग्रह सूर्य की परिक्रमा 80 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर रहते हुए प्रतिमिनट लगभग 500 मील की गति से कर रहा है। ग्रहों की गति और पृथ्वी पर उसकी सापेक्षिक गति का प्रभाव पृथ्वी के परिवेश में अणु-परमाणुओं पर किस विधि से पड़ता हे , यह वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय भले ही हो , हम ज्योतिषियों को यह समझ लेना चाहिए कि ग्रह-शक्ति का सारा रहस्य उसकी गति में तथा उस आकाशीय पिंड की सूर्य के साथ पृथ्वी पर बन रही कोणिक दूरी में ही छिपा हुआ है। 

बंदूक की गोली बहुत छोटी होती है, पर उसकी शक्ति उसकी गति के कारण है। हाथ में एक पत्थर का टुकड़ा रखकर लोग अपने को बलवान समझ लेते हैं , क्योंकि पत्थर को गति देकर शक्तिशाली बनाया जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में ग्रहों की शक्ति को समझने की चेष्टा करें , बंदूक की गोली में गति के कारण उसकी शक्ति को समझने में कठिनाई नहीं होती , किन्तु भीमकाय ग्रहों में उसकी तीव्र गति को देखते हुए भी उसकी शक्ति को अन्यत्र तलाशने की चेष्टा की जाती रही है। गति में शक्ति के रहस्य को न समझ पाने के कारण ही परंपरागत ज्योतिष में ग्रह-शक्ति के निर्धारण के लिए गति से संबंधित किसी सूत्र की चर्चा नहीं की गयी केवल रािश स्थिति में ही ग्रहों की शक्ति को ढूंढ़ने का बहुआयामी निष्फल प्रयास किया गया, जबकि ग्रहों के भीमकाय पिंड और उसकी तीव्र गति की तुलना लाखों -करोड़ों परमाणु-बमों से की जा सकती है। 

ग्रहों के विभिन्न प्रकार की गतियों का ज्ञान हमारे पूज्य ऋषि-मुनियों , ज्योतिषियों को पूरा था। सूर्य-सिद्धांत में ग्रहों की विभिन्न गतियों - अतिशीघ्री , शीघ्री , सम , मंद , कुटीला , वक्र और अतिवक्र आदि का उल्लेख है , किन्तु इन गतियों का उपयोग केवल ज्योतिष के गणित प्रकरण में किया गया है। पंचांग-निर्माण , ग्रहों की स्थिति के सही आकलण सूर्य-ग्रहण एवं चंद्र-ग्रहण की जानकारी के लिए ग्रहों की इन गतियों का प्रयोग किया गया परंतु फलित ज्योतिष के विकास में इन गतियों का उपयोग नहीं हो सका , क्योंकि ज्योतिषियों को यह जानकारी नहीं हो सकी कि ग्रह-शक्ति का सारा रहस्य ग्रह-गति में ही छिपा हुआ है । पृथ्वी के सापेक्ष ग्रहों की विभिन्न गतियों के कारण ही उनकी गतिज और स्थैतिज ऊर्जा में सदैव परिवत्र्तन होता रहता है , तदनुरुप जातक की प्रवृत्तियों और स्वभाव में परिवत्र्तन होता है। यह भी ध्यातव्य है कि किसी आकाशीय पिंड और सूर्य के बीच पृथ्वी पर जो कोण बनेगा , वह आकाशीय पिंड की ग्रह-गति के साथ सदैव व्युत्क्रमानुपाती संबंध बनाएगा। 

इस तरह चंद्रमा के प्रकाशमान भाग को मापना हो या अन्य ग्रहों की गति को समझना हो , सूर्य से उस पिंड की पृथ्वी पर बन रही कोणिक दूरी को समझ लेना पर्याप्त होगा । इस तरह ग्रह की शक्ति की जानकारी के लिए अलग से किसी उपकरण को बनाने की आवश्यकता नहीं है। विभिन्न ग्रहों की शक्ति के आकलण के लिए इस आधार पर विभिन्न सूत्रों का प्रयोग किया जा सकता है। इसका पूरा प्रयोग कर ही फलित ज्योतिष को इसकी पहली कमजोरी से छुटकारा दिलाया जा सकता है। इसकी पूरी जानकारी अगले किसी पुस्तक मेें फलित ज्योतिष के विज्ञान प्रकरण के किसी अध्याय के अंतर्गत की जाएगी , जिससे किसी ग्रह-शक्ति की तीव्रता को प्रतिशत में जाना जा सकता है। इसके बाद इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा कि किस व्यक्ति के लिए किस ग्रह की भूमिका सर्वोपरि है , कोई व्यक्ति किस संबंध में अधिकतम ऊंचाई पर जाने की क्षमता रखता है तथा उस ऊंचाई को प्राप्त करने का उसे कब मौका मिलेगा , इसके लिए नई दशा-पद्धति का एक नया सूत्र भी अलग से विकसित किया गया है।

ग्रह और राशीश की सापेक्षिक गति जातक को सकारात्मक या नकारात्मक दृिष्टकोण प्रदान करती है। ग्रह की गति और ग्रह की सूर्य से कोणिक दूरी का परस्पर गहरा संबंध है , किन्तु किसी भी हालत में ग्रह-शक्ति को समझने के लिए परंपरागत नियमों में एक भी नियम ग्रह-शक्ति के मूल स्रोत से संबंधित नहीं हैं। 

जब किसी एक ग्रह की शक्ति का सही मूल्यांकण नहीं किया जा सकता तो बहुत से ग्रहों की युति , वियुति और सापेक्षिक ग्रहों की स्थिति का मूल्यांकण कदापि नहीं किया जा सकता। इस तरह विभिन्न राजयोग , दरिद्र योग , मृत्युयोग , या अनिष्टकर योगों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। सभी योगों की व्याख्या अनुमान पर आधारित हो जाती है। यह फलित ज्योतिष की दूसरी बड़ी कमजोरी है। यही कारण है कि एक ही कुंडली विभिन्न ज्योतिषियों की नजर में भिन्न-भिन्न तरह से परिलक्षित होती है। सभी का निष्कषZ एक नहीं होता। सभी राजयोगों को सचमुच महत्वपूर्ण बनाने के लिए स्थैतिज धनात्मक ग्रहों को योग में भागीदार बनाना आवश्यक शर्त होगी । उच्च गणित के संभावनावाद का प्रयोग करके इसे अपेक्षाकृत विरल बनाना होगा। तभी फलित ज्योतिष की दूसरी बड़ी कमजोरी से छुटकारा पाया जा सकता है। 

फलित ज्योतिष की तीसरी और सबसे बड़ी कमजोरी ` विंशोत्तरी दशा पद्धति ´ है , जिसपर भारतीय ज्योतिषियों को नाज है तथा जिसकी जानकारी के बाद ही वे महसूस करते हैं कि वे पाश्चात्य ज्योतिषियों से अधिक जानकारी रखते हैं , क्योंकि पाश्चात्य ज्योतिषियों कों केवल गोचर के ग्रहों का ही ज्ञान होता है , जबकि भारत के ज्योतिषियों को गोचर के अतिरिक्त ऐसे सूत्रों की भी जानकारी है , जिससे विभिन्न ग्रहों का फलाफल जीवन के किस भाग में होगा , की स्पष्ट व्याख्या की जा सकती है यानि कोई ग्रह जीवन में कब फल प्रदान करेंगे , भारत के ज्योतिषी विशोत्तरी पद्धति से इसकी स्पष्ट व्याख्या कर सकते हैं। 

किन्तु मेरा मानना है कि विंशोत्तरी पद्धति से दूरस्थ भविष्यवाणी की ही नहीं जा सकती है। निकटस्थ भविष्यवाणियॉ अनुमान पर आधारित होती हैं और घटित घटनाओं को सही ठहराने के लिए विंशोत्तरी पद्धति बहुत ही बढ़िया आधार है , क्योंकि विंशोत्तरी पद्धति में एक ग्रह अपनी महादशा का फल प्रस्तुत करता है , दूसरा अंतर्दशा का , तीसरा प्रत्यंतरदशा का तथा चौथा सूक्ष्मदशा का । कल्पना कीजिए , ज्योतिषीय गणना में महादशावाला ग्रह काफी अच्छा फल प्रदा करनेवाला है , अंतर्दशा का ग्रह बहुत बुरा फल प्रदान करने की सूचना दे रहा है । प्रत्यंतर दशा का ग्रह सामान्य अच्छा और सूक्ष्म महादशा का ग्रह सामान्य बुरा फल देने का संकेत कर रहा हो , इन परिस्थितियों में किसी के साथ अच्छी से अच्छी और किसी के साथ बुरी से बुरी या कुछ भी घटित हो जाए , हेड हो जाए या टेल, किसी भी ज्योतिषी के लिए अपनी बात , अपनी व्याख्या , अपनी भविष्यवाणी को सही ठहरा पाने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है। लेकिन इतना तो तय है कि कोई भी ज्योतिषी संसार के लिए कितनी भी भविष्यवाणी क्यो न कर ले , विंशोत्तरी पद्धति से अपने लिए कोई भविष्यवाणी नहीं कर पातें। इस दशा-पद्धति के जानकार के लिए इससे बड़ी दुर्दशा और क्या हो सकती है ? 

किसी ग्रह की शक्ति कितनी है , उसके राशीश की शक्ति कितनी है , वह पृथ्वी से कितनी दूरी पर स्थित है , वह किस उम्र का प्रतीक ग्रह है , इन सब बातों से विंशोत्तरी दशा पद्धति का कोई संबंध नहीं है। जन्मकालीन चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में स्थित हो , तो वृद्धावस्था के ग्रह शनि को काम करने का अवसर बाल्यावस्था में ही प्राप्त हो गया , फिर विंशोत्तरी क्रम से अविशष्ट ग्रह अपना काम करते रहेंगे। 

सभी ज्योतिषी इस बात से भिज्ञ हैं कि बृहस्पति सभी ग्रहों में सबसे बड़ा है , एक रािश में एक वषZ रहता है। कल्पना करें , किसी वषZ मेंष रािश में बृहस्पति स्थित हो तो उस वषZ मेष लग्न के जितने भी व्यक्ति पैदा होंगे , सभी की कुंडली में लग्न में बुहस्पति होगा। सभी कुंडलियों में नवमेश और व्ययेश बृहस्पति लग्न में स्थित होने से इस ग्रह की नैसगिZक और भावाधिपत्य विशेषताएं एक जैसी होंगी। प्रत्येक दिन नौ दिनों तक उसी लग्न की उसी डिग्री में बच्चे पैदा होते चले जाएं , जो बिल्कुल असंभव नहीं , सभी जातकों के जीवन में बृहस्पति के प्रतिफलन काल की जानकारी देनी हो तो चूंकि बृहस्पति के सापेक्ष अन्य ग्रहों की स्थिति में बड़ा परिवत्र्तन नहीं होगा तो फलाफल में भी हर बच्चे में समानता मिल जाएगी। किन्तु बृहस्पति के फलप्राप्ति का मुख्य काल विंशोत्तरी दशा का के अनुसार उछल-कूद करता हुआ मिल जाएगा , जिसे निम्न प्रकार दिखाया जा सकता है -- 

जातक का जन्म यानि जन्म के समय चंद्रमा बृहस्पति के मुख्य काल का आरंभ 


अिश्वनी नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 0 डिग्री में हो 68 वषZ की उम्र के बाद 


भरणी नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 13 डिग्री में हो 61 वषZ की उम्र के बाद 


कृतिका नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 27 डिग्री में हो 41 व‘ाZ की उम्र के बाद 


रोहिणी नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 40 डिग्री में हो 35 वषZ की उम्र के बाद 


मृगिशरा नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 53 डिग्री में हो 25 वषZ की उम्र के बाद 


आद्रा नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 67 डिग्री में हो 18 वषZ की उम्र के बाद 


पुनर्वसु नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 80 डिग्री में हो जन्म के तुरंत बाद 


पुष्य नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 93 डिग्री में हो 104 वषZ की उम्र के बाद 


अश्लेषा नक्षत्र के आरंभ में आसमान के 107 डिग्री में हो 85 वषZ की उम्र के बाद 


यहॉ गौर करने की बात यह है कि आज जिस समय पुनर्वसु के चंद्र में जिस समय बच्चे का जन्म हुआ , ठीक 24 घंटे बाद कल इसी समय दूसरे बच्चे का जन्म हो , तो इन दोनो कुडलियों में लग्न के साथ साथ सभी भावों में ग्रहों की वही स्थिति होगी। केवल चंद्रमा दूसरी कुंडली में 13 डिग्री 20 मिनट की अधिक दूरी पर होगा । इतने ही अंतर के कारण बृहस्पति एक जातक के लिए अपना मुख्य फल बाल्यावस्था में ही प्रदान करेगा , तो दूसरे जातक को वह फल अतिवृद्धावस्था में प्रदान करने के लिए बाध्य होगा । इससे भी अधिक गंभीर परिस्थिति तब उत्पन्न हाोगी , जब दो बच्चे एक ही लग्न में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र के संधिकाल में जन्म लेंगे । जिस जातक का जन्म पुनर्वसु नक्षत्र में होगा , एक ही लग्न और एक ही ग्रह स्थिति के बावजूद पहले बचे को बृहस्पति से संबंधित फल की प्राप्ति जन्मकाल में होगी तथा कुछ ही क्षणों बाद जन्म लेनेवाले जातक को बृहस्पति का मुख्य फल 104 वषZ के बाद प्राप्त होगा। यह नियम केवल बृहस्पति के लिए ही लागू नहीं होगा , शेष ग्रहों के काल में भी बदलाव आएगा , क्योंकि शेष ग्रह भी अपना फल प्रदान करने के लिए क्यू में खड़े हैं। स्थान परिवत्र्तन सिर्फ चंद्रमा का हुआ , पर फल प्रदान करनेवाले सभी ग्रहों के दशाकाल में भारी उलटफेर हो गया। इस प्रकार के चमत्कार को कोई भी विज्ञानसम्मत नहीं मान सकता । जब संपूर्ण विंशोत्तरी पद्धति ही वैज्ञानिकता के दायरे से बाहर निकल जाती है , तो इसी पद्धति पर आधारित कृष्णमूर्ति पद्धति की वैज्ञानिकता भी स्वत: संदिग्ध हो जाती है। 

ग्रहों की वक्रता के संबंध में बहुत सारे लेख विभिन्न पत्र-पति्रकाओं में देखने को मिले , किन्तु एक भी लेखक आत्मविश्वास के साथ निर्णयात्मक स्वर में , बेहिचक यह कहने में सक्षम नहीं हैं कि वक्री ग्रह अच्छा फल देतें हैं या बुरा। यदि ये अच्छा फल देते हैं तो कब और यदि बुरा फल देते हैं तो कब ? संपूर्ण जीवन में किन परिस्थितियों में इनका केवल बुरा फल ही प्राप्त होता है। किन परिस्थितियों में वक्री ग्रह का जीवन के अधिकांश समय में अच्छा फल प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर देने में हमें कोई कठिनाई नहीं है , क्योंकि हमें सही दशा पद्धति की जानकारी है , परंतु जिसे नहीं है , वे इस प्रश्न का उत्तर देने में अवश्य ही कठिनाई महसूस करेंगे।


इस प्रकार के आलोचात्मक बातों से फलित ज्योतिष के ऐसे भक्तों को बहुत बार कष्ट पहुंचा चुका हंंू , जो फलित ज्योतिष के स्वरुप में कोई परिवत्र्तन नहीं चाहते। वे इन आलोचनाओं को ऋ़षि पराशर और जैमिनी की अवमानना से जोड़ देते हैं। किन्तु मेरी दृिष्ट में फलित ज्योतिष के नियमों की प्रामाणिकता या वैज्ञानिकता को सिद्ध करने के लिए किसी साक्ष्य की कोई आवश्यकता नहीं है। फलित ज्योतिष में वही नियम सही माने जा सकते हैं , जिनसे भविष्यवाणियॉ खरी उतरती रहे। जबतक फलित ज्योतिष के अनुपयोगी नियमों को हटा नहीं दिया जाए , इसे विज्ञान का दर्जा नहीं दिलाया जा सकता। साथ ही सही नियमों की खोज में संलग्न रहना होगा। फलित ज्योतिष के विकास में गणित और भौतिक विज्ञान के साथ धनात्मक सहसंबध स्थापित करना होगा। सन् 1975 जुलाई के `ज्योतिष-मार्तण्ड ´ पति्रका मे मेरा एक लेख ` दशाकाल निरपेक्ष अनुभूत तथ्य ´ प्रकािशत हुआ था , जिसमें कारणों सहित यह उल्लेख किया गया था कि जन्म से 12 वषZ की उम्र तक चंद्रमा , 12 से 24 वषZ की उम्र तक बुध , 24 से 36 वषZ की उम्र तक मंगल , 36 से 48 वषZ की उम्र तक शुक्र , 48 से 60 वषZ की उम्र तक सूर्य , 60 से 72 वषZ की उम्र तक बृहस्पति , 72 से 84 वषZ की उम्र तक शनि , 84 से 96 वषZ की उम्र तक यूरेनस , 96 से 108 वषZ की उम्र तक नेपच्यून और 108 से 120 वषZ की उम्र तक प्लूटो अपनी शक्ति के अनुसार मानवजीवन पर अपना अच्छा या बुरा प्रभााव डालते हैं। देश-विदेश के प्रबुद्ध पाठकों का समुदाय इस उद्घोषित नयी दशा-पद्धति की संपुिष्ट में निम्न सत्य का अवलोकण करें---- 

1 जिन कुंडलियों में चंद्रमा अमावस्या के निकट का होता है , वे सभी जातक 5-6 वषZ की उम्र में मनोवैज्ञानिक रुप से कमजोर होते हैं। उनके बचपन में मन को कमजोर बनानेवाली घटनाएं घटित होती हैं 


2 जिन कुंडलियों में बुध बहुत वक्र है , उन जातकों का 17-18वॉ वषZ कष्टकर होता है। 


3 जिन कुंडलियों में मंगल बहुत वक्र है , उन जातकों का 29-30वॉ वषZ कष्टकर होता है। 


4 जिन कुंडलियों में शुक्र बहुत वक्र है , उन जातकों का 41-42 वॉ वषZ कष्टकर होता है। 


5 जिन कुंडलियों में सूर्य अतिशीघ्री ग्रह की रािश में स्थित होता है , उनका 53-54 वॉ वषZ कष्टप्रद होता है। 


6 जिन कुंडलियों में बृहस्पति बहुत वक्र हो , उन जातकों का 65-66 वॉ वषZ कष्टकर होता है। 


7 जिन कुंडलियों में शनि बहुत वक्र हो , उन जातकों का 77-78 वॉ वषZ कष्टकर होता है। 


मै समझता हंू कि उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्य इतने सटीक हैं कि एक भी अपवाद आप प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे। 


परंपरागत फलित ज्योतिष की आलोचना या समीक्षा से किसी को भी परेशान होने की जरुरत नहीं है , क्योंकि अनावश्यक नियमों की खुलकर आलोचना करते हुए वैकल्पिक व्यवस्था के रुप में वैज्ञानिक नियमों पर आधारित फलित ज्योतिष के नए नियमों को भी मैने प्रस्तुत किया है। मै गत्यात्मक दृिष्टकोण से भविष्यवाणी करते हुए पूर्ण आश्वस्त रहता हंू किन्तु अभी भी ऐसे बहुत सारे पहलू हैं ,जिन्हें विकसित करने के लिए वैज्ञानिक दृिष्टकोण की आवश्यकता है। इसके लिए लम्बी अवधि तक लाखों लोगों को अनुसंधान में संलग्न रहना होगा । ग्रह की संपूर्ण शक्ति उसके प्रकाशमान भाग , उसकी गति और सूर्य से इसकी कोणिक दूरी में अंतिर्नहित है , अन्यत्र कहीं नहीं , इस बात को समझना होगा। हर व्यक्ति के जन्मकाल से ही चंद्रमा के काल का आरंभ हो जाता है , इसके बाद बुध , फिर मंगल , शुक्र , सूर्य , बृहस्पति और शनि का काल आता है। प्रत्येक का काल 12 वषोZं का होता है। प्रत्येक ग्रह अपनी शक्ति के अनुसार ही अपने काल में फल प्रदान करता है। मानव-जीवन में ग्रहों के प्रतिफलन काल को समझने के लिए गत्यात्मक दशा पद्धति फलित ज्योतिष को वैज्ञानिक आधार प्रदान कर रहा है , इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं।


'गत्यात्मक ज्योतिष' टीम से मुलाक़ात करें।



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