गत्यात्मक दशा पद्धति : भाग - 1

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गत्यात्मक दशा पद्धति : भाग - 1  

ज्योातिष में ग्रहों के प्रभाव के समय को निर्धारित करने वाले सूत्रों का समूह दशापद्धति कहलाता है। पूर्व में कई प्रकार की दशा पद्धतियां प्रचलित हैं , पर अभी तक ग्रहों के अच्छेर या बुरे प्रभाव के सटीक निर्धारण में हमें सफलता नहीं मिल सकी थी। गतिशील विचारधाराओं यानि वैज्ञानिक विचारधाराओं से संयुक्त , ग्रहों की गति से संबंधित होने के कारण मेरी खोजों से संबंधित नई दशापद्धति का नामकरण ‘ गत्यात्मक दशा पद्धति ’ किया गया है। इस दशापद्धति के आगे प्रयुक्त गत्यात्मक शब्द प्रतीकात्मक है। इसका शाब्दिक अर्थ है , गति से संबंधित। अतः गत्यात्मक दशापद्धति कहने से उस दशा पद्धति का बोध होता है , जिसमें ग्रह प्रदत्त दशाकाल ग्रहों की गति पर आधारित हो। दूसरा अर्थ उस दशापद्धति से है , जिसमें गति है यानि जो ज्योतिष जैसे शास्त्र को गति प्रदान कर विज्ञान बना सकता है। वैसे भी जब कोई शास्त्र विज्ञान से संयुक्त हो जाता है तो उसमें स्वयंमेव ही गति आ जाती है। इस दशा पद्धति में ग्रह की गतिज और स्थैतिक ऊर्जा की प्रतिशत तीव्रता को सम्मिलित कर इसका सीधा संबंध जातक की संपूर्ण परिस्थितियों , अनुभूतियों , महत्वाकांक्षा , कार्यक्षमता , सुख-दुख , सफलता और असफलता से जोड़कर इसे विज्ञान का स्वरुप प्रदान किया गया है।


इस दशा पद्धति के सभी जानकार किसी एक जातक से संबंधित परिस्थितियों , स्वभाव , अनुभूतियों , उत्तरदायित्व , महत्वाकांक्षा , कार्यक्षमता और स्तर के बारे में , कि ये किस उम्र में किस तरह की होंगी , से संबंधित भविष्यवाणियां एक तरह से करेंगे। मनोबल या आत्मविश्वास का घटना-बढ़ना , सफलता-असफलता , सुख-दुख स्तर और गांभीर्य के संबंध में सभी ज्योतिषियों के निष्कर्ष एक जैसे होंगे। इसे लेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट रुप से दिखाया जा सकेगा। इस तरह इस दशापद्धति के द्वारा पहली बार फलित ज्योतिष को वैज्ञानिक स्वरुप प्रदान किया जा रहा है। यह विज्ञान इसलिए भी है , क्योंकि ग्रहों की पृथ्वी से दूरी , सूर्य से उनकी कोणिक दूरी और इसकी गति में परस्पर का अटूट संबंध है , पृथ्वी पर पड़नेवाले इनके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में सदैव बदलाव आता रहता है , जिसका प्रभाव पृथ्वी के समस्त विद्युत चुम्बकीय वातावरण , अणु-परमाणु , इलेक्ट्रान , प्रोट्रॉन या इनसे भी सूक्ष्म तत्वों पर भिन्न भिन्न तरंगों के माध्यम से पड़ता है।

अबतक की प्रचलित दशापद्धतियों का मूल्य ज्योतिषियों की दृष्टि में चाहे कुछ भी रहा हो , यह कहना भी उचित ही है कि उनके सरदर्द का कारण सदा से दशाकाल को निरुपित करना ही रहा है , भले ही उनकी गणना का आधार चंद्रमा के साथ नक्षत्र का संबंध रहा हो या कोई अन्य विधि। यदि इस तरह की बात नहीं होती तो शनि महादशा और उसकी ही अंतर्दशा के अंतर्गत जबकि कर्क लग्नवालों के लिए शनि अयोगकारक होता है , इसका फल निश्चित तौर पर बुरा होना चाहिए , सभी ज्योतिषियों की प्रत्याशा के विरुद्ध इंदिरा गाॅधी 1971 में पुनः प्रधानमंत्री का पद सुशोभित नहीं करती। भविष्यवाणी के प्रतिकूल घटना घटने के बाद तो कोई भी ज्योतिषी अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए शब्दों की व्याख्या अनेक तरह से कर सकता है , अपने सिद्धांतों की पुष्टि के लिए कुछ भी तर्क दे सकता है , परंतु अंतःकरण को समझा पाना बहुत ही कठिन काम है ।

इतनी बातों की चर्चा करने का अभिप्राय यह बिल्कुल नहीं कि मैं इस लेख में भी परंपरागत दशा पद्धतियों की आलोचना करने जा रहा हूं। यहां केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि मैं परंपरागत दशापद्धतियों में इतनी अधिक त्रुटियां महसूस कर चुका हूं कि इनके समर्थन में मैं अपने मन को किसी भी हालत में नहीं ढाल पाता हूं। इनमें कौन सा नियम पुरातन और कौन सा आधुनिक है , इसके इतिहास की भी व्याख्या आवश्यक नहीं समझता। इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि किसी उद्देश्य तक पहुंचने के लिए ग्रह दशाकाल की उचित जानकारी के लिए एक साफ-सुथरे वैज्ञानिक नियम की आवश्यकता है , क्योंकि जब एक नियम पूर्णतः काम नहीं कर रहा होता हैं तो उस नियम की अवहेलना करते हुए दूसरे , तीसरे , चौथे,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अनेक नियम बनते चले जाते हैं।

फलित ज्योतिष में इस तरह की बात ग्रहशक्तिनिर्धारण और दशाकालनिर्णय के संदर्भ में परिलक्षित होती है। जहां ग्रहशक्ति निर्धारण के लिए 15 से अधिक नियमों का उल्लेख मिलता है वहीं अधिकारी विद्वानों के अनुसार शताधिक दशापद्धतियों का उल्लेख ज्योतिष की पुस्तकों में है। यदि दशापद्धति निर्धारण के संबंध में शताधिक नियमों को स्वीकार कर लिया जाए , ऐसा सोंचकर कि सभी नियम एक दूसरे के पूरक हैं तो वांछित दशाकाल का सही निर्णय कभी नहीं हो सकता , भले ही इस प्रक्रिया में ज्योतिषियों की दुर्दशा सिद्ध हो।
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दूसरी बात यह भी हो सकती है कि इन दशा पद्धतियों में से कोई भी नियम सही नहीं हो , सभी नियम भिन्न-भिन्न विद्वानों की अपरीक्षित कल्पनाएं हों। यहां किसी भी दशापद्धति की सम्मति या विरोध में लिखना मेरा उद्देश्य नहीं है , फिर भी इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि दशा पद्धतियों की कमजोरियों को ढॅकने के लिए प्रायः दशापद्धति से की गयी भविष्यवाणियों और अन्य तथ्यों की पुष्टि अन्ततः सभी ज्योतिषी लग्न सापेक्ष गोचर प्रणाली अर्थात अभी आसमान में ग्रहों की जो स्थिति है ,उसे लेकर करते हैं। समय के छोटे अंतराल को समझने के लिए लग्न सापेक्ष गोचर प्रणाली को मैं अमोघ अस्त्र के रुप में स्वीकार करता हूं। किन्तु यहां भी कई कठिनाइयां उपस्थित हो जाती हैं , जैसे एक ही ग्रह किसी के जीवनकाल में गोचर में अनेक बार एक निश्चित , अनुकूल राशि और भाव से गुजरता है , परंतु राशि और भाव के संदर्भ में उस ग्रह के कारण मात्रा और गुण के ख्याल से फलाफल कुछ भिन्नता लिए होता है ।

जैसे किसी व्यक्ति का लग्न और राशि मेष हो , तो गोचर में जब जब वृष राशि पर बलवान चंद्रमा आएगा , नियमतः जातक को गुण और मात्रा के संदर्भ में द्वितीय भाव से संबंधित तत्वों अर्थात कोष , कुटुम्ब आदि के संदर्भ में सुख की अनुभूति होनी चाहिए , किन्तु जीवन के विस्तृत अंतराल में फलित में समरुपता की संभावना कदापि एक नहीं हो सकती। प्रायः भावाधिपत्य और भावस्थिति के अनुरुप ही फल की प्राति होगी। अपेक्षा के विपरीत फल की गुंजाइश नहीं होने के बावजूद भिन्न-भिन्न अवसरों पर परिणाम और गुण जिस तरह उपस्थित होंगे , उसमें जमीन-आसमान का अंतर हो सकता है। इसके कई कारण हो सकते हैं , जिसमें सबसे बड़ा कारण दशाकाल का परिवर्तन ही होगा। अब इस प्रकार की बातें गत्यात्मक दशा पद्धति की प्रायोगिक जांच से सिद्ध हो चुकी है।

गोचर के ग्रहों का फलित परिवर्तन किस दशा पद्धति के अनुसार होना चाहिए, यह प्रश्न आम ज्योतिषियों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। अतः प्रायः सभी ज्योतिषी अपने आस्था और विश्वास के अनुसार विभिन्न दशापद्धतियों का उपयोग करते रहें हैं। नयी खोज की शक्ति सभी में नहीं होती। अतः जबतक किसी प्रकार का वैज्ञानिक धरातल नहीं मिल जाता , कहीं न कहीं विश्वास और आस्था की विवशता होती है , किन्तु हजारो प्रयोगों के बाद भी शास्त्रवेत्ता सही जगह पर नहीं पहुॅच पा रहे हों तो चिड़चिड़ाहट का होना भी स्वाभाविक ही है। ज्योतिषियों ने खुद महसूस किया कि मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा उतार-चढ़ाव आता है , जो दशाकाल पर निर्भर तो करता है , पर वे उस दशाकाल को नहीं पकड़ पा रहें हैं , जिससे भविष्यवाणियां खरी नहीं उतर रहीं हैं , वे संदिग्धावस्था में हैं , किन्तु फिर भी वे विंशोत्तरी पद्धति के हिमायती बने रहते हैं , इसे हर वक्त अचूक मानते हैं , इसकी बहुत सारी खूबियां बताते हैं । भला प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेने से किसी विज्ञान का विकास हुआ है ? जरा उनकी बातों पर भी ध्यान दीजिए जो इसकी कमजोरियां बता रहें हैं , इसे निरर्थक सिद्ध कर रहें हैं।

मैंने कभी भी विंशोत्तरी पद्धति में किसी खूबी को नहीं महसूस किया और यही कारण है कि मेरा सारगर्भित लेख ‘ व्रिशोत्तरी पद्धतिःएक पहेली’ ने परंपरावादी और कट्टरपंथी ज्योतिषियों को हिलाकर रख दिया। वे विंशोत्तरी पद्धति को भविष्यकथन के लिए अचूक बताते हैं और मैं उन्हें सदैव चूकता हुआ देखता हूं। इस प्रकार की बातों का उल्लेख मैंने 1975 में जयपुर, राजस्थान से प्रकाशित ज्योतिष मार्तण्ड नामक पत्रिका के जुलाई अंक में दशाकाल निरपेक्ष अनुभूत तथ्य नामक लेख में किया था। उसके बाद 30 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । आज भी कुछ सम्मेलनों तथा पत्र-पत्रिकाओं में सभी ज्योतिषियों द्वारा वंशोत्तरी पद्धति की उनकी रुचि और रसास्वादन को देखकर चकित रह जाता हूं। गलत दिशा में ज्योतिषियों के परिश्रम से कितनी ऊर्जा नष्ट हो रही है , सारा मेहनत निरर्थक सिद्ध हो रहा है। मैंने अपनी बात कई बार विद्वान ज्योतिषियों के समक्ष रखने की कोशिश की है , वे मेरी बतों को महसूस अवश्य करते हैं , वे मेरे द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर दे पाने की स्थिति में नहीं होते , जिससे वे थोड़ी देर के लिए निराश भी हो जाते हैं , किन्तु उनके पास पूर्वाग्रह है , शास्त्रों में जो बातें लिखी हुई है , वे पर्याप्त हैं ।

शास्त्रों में उल्लिखित तथ्यों की आलोचना करनेवाले व्यक्ति को सही ठहरा पाने में कठिनाई महसूस करते हैं । ज्योतिषी मुझे शास्त्रविरोधी समझते हुए अलग-थलग करना चाहते हैं , किन्तु मैं चुपचाप रहनेवाला नहीं हूं। बड़े ही सहज भाव से बिना किसी पूर्वाग्रह के मैं अपनी अनुभूतियों को विद्वान पाठकों के सम्मुख रखता रहूंगा। किसी शास्त्र में कोई परंवरागत नियम सदैव अकाट्य होता है , इसमें मुझे विश्वास नहीं है। शास्त्र अनुभूत तथ्यों का संकलन होता है। विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न नियमों उपनियमों का सृजन होता है , कालांतर में वे सभी नियम जो विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं , जो बिल्कुल परीक्षित होते हैं जहां कम से कम अपवाद होता है , जो लक्ष्य या निष्कर्ष तक बिना अवरोध के पहुंचा देते हैं , जिन नियमों में परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रहती है ,उसे विज्ञान का दर्जा स्वतः ही प्रात हो जाता है। फलित ज्योतिष के वे ही नियम मान्य हैं , जिससे आत्मविश्वास के साथ भविष्यवाणियां की जा सके और भविष्यवाणियां खरी उतरती रहे।

ज्‍योतिष में सटीक भविष्‍यवाणियों के लिए मैने गत्‍यात्‍मक दशा पद्धति के सिद्धांत को विकसित किया , निरंतर इतने वर्षों से मैं विभिन्‍न कुंडलियो में इसकी पुष्टि कर रहा हूं , इसके बारे में जानकारी अगले भाग में ------

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